थुदरम एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों को अपने पहले फ्रेम से ही बांध लेती है। थरुण मूर्ति द्वारा निर्देशित और मोहनलाल जैसे दिग्गज अभिनेता की मौजूदगी में यह फिल्म न केवल एक इमोशनल यात्रा है, बल्कि एक इंटेंस रिवेंज थ्रिलर भी है जो दर्शकों के ज़ेहन में लंबे समय तक छाप छोड़ती है। इस फिल्म को देखकर ऐसा लगता है जैसे मलयालम सिनेमा एक बार फिर से उस स्तर पर पहुंच रहा है जहाँ कहानी कहने की ताकत तकनीकी तामझाम से कहीं ज़्यादा मायने रखती है।
फिल्म की कहानी में बदले की भावना है, लेकिन इसकी प्रस्तुति बेहद संतुलित और नपे-तुले अंदाज़ में की गई है। इसमें न तो ज़रूरत से ज़्यादा मेलोड्रामा है और न ही हॉलीवुड से प्रभावित भारी-भरकम एक्शन। मोहनलाल की स्क्रीन प्रेज़ेंस वैसे भी दर्शकों को हिप्नोटाइज़ करने की ताकत रखती है, लेकिन थरुण मूर्ति ने उनके किरदार को जिस संयम और परिपक्वता से गढ़ा है, वह काबिल-ए-तारीफ है। उन्होंने अपने अभिनय के जरिए इस बार एक ऐसे इंसान का चेहरा दिखाया है जो हर मोड़ पर अपने भीतर के तूफान से जूझता है।
थरुण मूर्ति की डायरेक्शन स्टाइल बहुत ही सूक्ष्म लेकिन प्रभावशाली है। उन्होंने कैमरा मूवमेंट, फ्रेमिंग, और म्यूजिक को कहानी का हिस्सा बना दिया है। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी सस्पेंस को और गहरा बनाती है, जबकि बैकग्राउंड स्कोर दर्शकों की धड़कनों को तेज कर देता है। खासतौर पर फिल्म के क्लाइमेक्स की बात करें तो यह उन चुनिंदा दृश्यों में से एक है जो एक सुकून देने के साथ-साथ झकझोर भी देता है। यहाँ पर थरुण मूर्ति की निर्देशन क्षमता और मोहनलाल की अदाकारी का मेल देखने लायक है।
फिल्म में सपोर्टिंग कास्ट का भी उल्लेख करना ज़रूरी है। प्रत्येक किरदार को उसकी ज़रूरत के अनुसार स्क्रीन स्पेस दिया गया है, और किसी को भी सिर्फ दिखावे के लिए फिल्म में नहीं डाला गया। ये सभी किरदार न केवल कहानी को मजबूत बनाते हैं बल्कि मुख्य पात्र के इमोशनल ग्राफ को भी गहराई देते हैं। थरुण मूर्ति ने यह सिद्ध कर दिया कि एक अच्छी स्क्रिप्ट और बेहतरीन कास्टिंग के दम पर फिल्में बड़े बजट के बिना भी दर्शकों को बांध सकती हैं।
थुदरम की एक और खासियत इसकी सिनेमैटिक सिंप्लिसिटी है। फिल्म अपनी कहानी को लेकर इतने सधे हुए ढंग से चलती है कि दर्शकों को एक भी फ्रेम फालतू नहीं लगता। फिल्म में इस्तेमाल किए गए लोकेशंस भी कहानी के मूड से पूरी तरह मेल खाते हैं। संवादों की बात करें तो वो सीधे दिल में उतरते हैं, खासकर जब किरदार दर्द, गुस्से और प्यार की बात करते हैं। इनमें कोई बनावटीपन नहीं है, बल्कि यथार्थ की झलक मिलती है।
फिल्म की थीम बदले की है, लेकिन यह बदला किसी फिल्मी स्टाइल में नहीं बल्कि अंदरूनी तड़प और नैतिक सवालों के साथ जुड़ा हुआ है। यह बदला उस इंसान का है जो न्याय चाहता है, लेकिन जिस रास्ते पर चलता है वो खुद उसे इंसान से कुछ और बना देता है। यह ट्रांज़िशन बहुत ही प्रभावशाली है और मोहनलाल ने इसे जिस आत्मीयता से निभाया है, वो सच में तारीफ के काबिल है। उनके चेहरे की छोटी-छोटी अभिव्यक्तियाँ, उनकी चुप्पी और हर मोमेंट की टाइमिंग इस किरदार को जीता-जागता बना देती है।
फिल्म के कुछ हिस्सों में धीमापन ज़रूर है, खासकर मिड-पॉइंट के बाद, लेकिन यह स्लोनेस भी कहानी के टोन का हिस्सा बन जाती है। यह फिल्म एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने व्यक्तिगत आघात को सामाजिक अन्याय से जोड़ता है, और इसी में से एक बड़ी कहानी उभरती है जो हमारे समाज की संवेदनाओं पर सवाल उठाती है। थरुण मूर्ति ने यहां एक व्यक्तिगत बदले को सामाजिक टिप्पणी में बदलकर उसे एक नया आयाम दिया है।
फिल्म की एडिटिंग भी काफी सटीक है। कई जगह पर डायलॉग से ज्यादा प्रभावशाली मौन हैं, और एडिटर ने इन्हें सही स्थान पर रखा है। इसने फिल्म के सस्पेंस और इमोशनल डेप्थ दोनों को और भी गहराई दी है। बैकग्राउंड म्यूजिक से लेकर साउंड डिजाइन तक, सब कुछ मिलकर एक ऐसी सिनेमैटिक भाषा बनाते हैं जो सीधे दर्शक के मन में उतरती है।
मोहनलाल की परफॉर्मेंस के अलावा एक बात और है जो इस फिल्म को खास बनाती है, और वो है इसका सामाजिक संदर्भ। फिल्म सिर्फ एक बदले की कहानी नहीं है, बल्कि यह सत्ता, भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत पीड़ा को जिस तरह से जोड़ती है, वो एक बड़ा कमेंटरी बन जाती है। यह फिल्म उन सभी दर्शकों के लिए जरूरी है जो सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सोचने की एक प्रक्रिया मानते हैं।
कहानी की संरचना बहुत ही मजबूत है और दर्शक इसमें कहीं भी भटकते नहीं हैं। फिल्म की शुरुआत ही एक ऐसे इमोशनल हुक से होती है जो दर्शकों को पूरी तरह अपनी पकड़ में ले लेती है। फिर जैसे-जैसे परतें खुलती हैं, किरदारों की गहराई और उनका संघर्ष और भी स्पष्ट होता जाता है। फिल्म के अंत में जो नैतिक दुविधा पैदा होती है, वह इसे सिर्फ एक रिवेंज ड्रामा नहीं रहने देती, बल्कि एक गहरी मानवीय कहानी में बदल देती है।
थरुण मूर्ति की यह फिल्म एक बार फिर यह साबित करती है कि मलयालम सिनेमा क्यों लगातार देश के सबसे प्रभावशाली फिल्म उद्योगों में शुमार हो रहा है। उनके निर्देशन में जो आत्मविश्वास है, वह हर फ्रेम में झलकता है। मोहनलाल के साथ उनकी यह पहली साझेदारी थी, लेकिन उन्होंने जिस तरह से एक आइकॉनिक अभिनेता से परफॉर्मेंस निकाली है, वह बताता है कि वो खुद भी अब निर्देशकों की उस लीग में आ चुके हैं जिनसे सिनेमा के नए आयामों की उम्मीद की जा सकती है।
अंततः, थुदरम एक ऐसी फिल्म है जो न सिर्फ दिल को छूती है बल्कि दिमाग को भी झकझोरती है। इसमें सस्पेंस है, इमोशन है, और सबसे बढ़कर एक ऐसी कहानी है जो आपको सोचने पर मजबूर कर देती है। अगर आप एक ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो सिर्फ एंटरटेन ना करे, बल्कि आपको भीतर तक हिला दे, तो थुदरम आपकी लिस्ट में जरूर होनी चाहिए।