मुंबई की सियासत में आज एक ऐतिहासिक दिन दर्ज हुआ, जब महाराष्ट्र की राजनीति के दो प्रमुख चेहरे—राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे—लगभग दो दशकों बाद एक साथ एक मंच पर नजर आए। यह दृश्य न केवल मराठी जनमानस के लिए गर्व की बात थी, बल्कि समूचे राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक बड़ा संकेतक बन गया है। दोनों नेताओं ने ‘मराठी विजय रैली’ के नाम से आयोजित इस सभा में न केवल केंद्र सरकार की हिंदी थोपने की नीति का विरोध किया, बल्कि महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को एक बार फिर सबसे ऊपर रखने का संकल्प भी लिया।
इस रैली का आयोजन दक्षिण मुंबई स्थित एनएससीआई डोम में किया गया, जहां हजारों की संख्या में मराठी समर्थक एकत्रित हुए। रैली सुबह से ही चर्चा में रही क्योंकि यह पहली बार था जब शिवसेना (उद्धव गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (राज ठाकरे गुट) के नेता एक साथ खड़े हुए। मंच पर न कोई पार्टी का झंडा था, न ही कोई राजनीतिक बैनर—सिर्फ और सिर्फ ‘मराठी अस्मिता’ की गूंज थी।
इस रैली की शुरुआत एक गहन सांस्कृतिक कार्यक्रम से हुई, जिसमें मराठी लोकगीत, ढोल-ताशे और पारंपरिक नृत्य के माध्यम से महाराष्ट्र की विरासत को प्रस्तुत किया गया। जैसे ही राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे मंच पर पहुंचे, पूरा डोम ‘जय महाराष्ट्र’ और ‘मराठी माणसाचा विजय असो’ के नारों से गूंज उठा। इस माहौल में दोनों नेताओं ने जनता को संबोधित किया।
उद्धव ठाकरे ने अपने भाषण में स्पष्ट कहा कि शिक्षा प्रणाली पर हिंदी को अनिवार्य करना महाराष्ट्र की संस्कृति पर सीधा प्रहार है। उन्होंने कहा, “हम किसी भाषा के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन मराठी की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं की जाएगी। ये राज्य एक समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास वाला है और इसे दबाना किसी भी हाल में मंजूर नहीं होगा।” उन्होंने छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को आश्वस्त किया कि उनकी मातृभाषा मराठी के सम्मान से कोई समझौता नहीं होने दिया जाएगा।
राज ठाकरे ने अपने चिर-परिचित तीखे अंदाज में सरकार पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार अगर भाषा के नाम पर राज्य की अस्मिता से खिलवाड़ करेगी तो महाराष्ट्र चुप नहीं बैठेगा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि “मराठी भाषा 3,000 वर्षों से चली आ रही है, और हम इसे किसी भी दबाव में नहीं आने देंगे।” उनकी इस बात पर तालियों की गड़गड़ाहट पूरे सभागार में गूंजने लगी।
इस रैली को ‘विजय रैली’ इसलिए कहा गया क्योंकि हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी दो सरकारी प्रस्तावों (GR) को वापस लिया गया है, जिनमें पहली से तीसरी कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य बनाने की बात कही गई थी। जनविरोध और मराठी संगठनों के दबाव के बाद सरकार को यह निर्णय वापस लेना पड़ा, जिसे जनता की जीत के रूप में देखा जा रहा है।
इस आयोजन के न सिर्फ सामाजिक और सांस्कृतिक, बल्कि राजनीतिक मायने भी गहरे हैं। लंबे समय से अलग-अलग राह पर चल रहे ठाकरे बंधुओं का यह मिलन आने वाले बीएमसी चुनावों से पहले एक बड़ा सियासी संकेत है। विश्लेषकों का मानना है कि यह साझा मंच एक संभावित गठबंधन की ओर इशारा कर रहा है, खासकर तब जब मराठी वोट बैंक को एकजुट करने की आवश्यकता पहले से कहीं ज़्यादा महसूस की जा रही है।
यह रैली उन तमाम मुद्दों पर केंद्रित रही जो मराठी समाज की पहचान से जुड़े हैं—भाषा, शिक्षा, प्रशासन में मराठी का प्रयोग, और क्षेत्रीय स्वाभिमान। वक्ताओं ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार से यह भी अपील की कि शिक्षा नीति राज्य की संस्कृति के अनुरूप बनाई जाए और किसी भी प्रकार की थोपने वाली मानसिकता से बचा जाए।
इस बीच, ठाकरे बंधुओं की मुलाकात ने जनता के बीच यह उम्मीद भी जगा दी है कि महाराष्ट्र की राजनीति में अब विचारधारा की बजाय क्षेत्रीय हितों को प्राथमिकता दी जाएगी। दोनों नेताओं ने यह साफ कर दिया कि यह मंच किसी राजनीतिक गठजोड़ की शुरुआत नहीं है, लेकिन मराठी हितों के लिए अगर साथ आना पड़े, तो वे पीछे नहीं हटेंगे।
रैली में शामिल लोगों की प्रतिक्रिया भी बेहद भावनात्मक रही। कई बुजुर्गों ने कहा कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि बाला साहेब ठाकरे के ये दोनों वारिस एक दिन फिर साथ आएंगे। युवाओं ने भी इसे मराठी पहचान की एक नई सुबह बताया।
इस आयोजन के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। आने वाले दिनों में राज और उद्धव के बीच राजनीतिक समीकरण कैसे बनते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। लेकिन इतना तय है कि आज की रैली ने मराठी अस्मिता की रक्षा के लिए एक नया अध्याय लिखा है और यह अध्याय सिर्फ भाषणों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह महाराष्ट्र की जनता के दिलों में एक नई उम्मीद का संचार कर चुका है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह रैली एक प्रतीकात्मक जीत से कहीं ज़्यादा थी। यह वह क्षण था जब राजनीति ने भाषा और संस्कृति के आगे झुककर समाज को प्राथमिकता दी। ठाकरे बंधुओं की यह एकता भले ही अस्थायी हो या स्थायी, लेकिन इसने यह संदेश तो साफ दे दिया है कि जब बात मराठी स्वाभिमान की होगी, तब सारे मतभेद किनारे कर एक साथ खड़ा होना ही सच्चा नेतृत्व कहलाता है।
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