22 अप्रैल की सुबह कश्मीर के फालगाम में सूरज की किरणें जब बर्फीले पहाड़ों को छू रही थीं, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह दिन उस जन्नत की रूह तक को झकझोर देगा। पर्यटक, फोटोग्राफर, हनीमून कपल्स, लोकल गाइड्स—हर कोई अपनी-अपनी दुनिया में मग्न था। कश्मीर की हसीन वादियों में खिलते चेहरों के बीच अचानक आई गोलियों की गूंज ने उस खुशनुमा माहौल को चीखों में बदल दिया।
सुबह करीब 10:15 बजे, चार आतंकी एक काली SUV में सवार होकर टूरिस्ट पॉइंट के पास पहुंचे। उन्होंने बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलानी शुरू कर दीं। देखते ही देखते वहां अफरा-तफरी मच गई। गोलियों की आवाज़ें, दौड़ते कदम, बच्चों की चीखें, माताओं की पुकारें और ज़मीन पर गिरते लोग—यह मंजर किसी युद्ध क्षेत्र से कम नहीं था।
26 निर्दोषों की जानें चली गईं। इनमें आठ साल की नूर फातिमा भी थी, जो पहली बार अपने पापा के साथ बर्फ देखने आई थी। एक नवविवाहित कपल भी था जो अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत का जश्न मना रहा था। एक बुज़ुर्ग दंपत्ति थे, जो हर साल अपनी सालगिरह फालगाम में मनाते थे—इस बार वह वहीं के होकर रह गए।
हमले के पीछे जिम्मेदारी लेने वाला संगठन ‘कश्मीर रेजिस्टेंस फ्रंट’ था, लेकिन यह दावा भर ही काफी नहीं था। जांच एजेंसियों को जल्द ही इस बात के संकेत मिले कि ये हमलावर सीमा पार से निर्देशित थे। चार में से दो आतंकी मौके पर ही मारे गए, जबकि दो भाग निकले। सुरक्षाबलों ने पूरे इलाके में सर्च ऑपरेशन चलाया, ड्रोन, स्निफर डॉग्स और आधुनिक तकनीक की मदद से फरार आतंकियों की तलाश की जा रही है।
दिल्ली में जब प्रधानमंत्री को इस हमले की खबर मिली, तो उन्होंने तुरंत अपनी अंतरराष्ट्रीय यात्रा रद्द कर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृहमंत्री के साथ उच्च स्तरीय बैठक की। प्रधानमंत्री ने इस घटना को ‘मानवता पर हमला’ बताया और दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा दिलाने का आश्वासन दिया। भारत ने इस हमले के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हुए सीमा सुरक्षा को और मजबूत कर दिया है।
देश भर में रोष की लहर दौड़ पड़ी। सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियों का सैलाब उमड़ पड़ा। स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों में मौन रखा गया। बॉलीवुड से लेकर खेल जगत तक, हर कोई इस बर्बरता से आहत था। प्रियंका चोपड़ा ने इसे “कश्मीर की आत्मा पर हमला” बताया, तो एक पाकिस्तानी अभिनेत्री ने भी कहा—”दुख की कोई सरहद नहीं होती।”
लेकिन असल सवाल ये नहीं है कि कितने मरे—असल सवाल यह है कि कब तक? कब तक ये घाटियाँ खून से रंगी जाती रहेंगी? कब तक सैलानियों का स्वागत फूलों की जगह बंदूकें करेंगी? और कब तक आतंक, इंसानियत से ज्यादा ताकतवर बना रहेगा?
एक लोकल टैक्सी ड्राइवर ने बताया, “हम तो सोचते थे अब हालात सुधर रहे हैं। इतने सालों बाद फालगाम फिर से गुलजार होने लगा था। लेकिन इस एक हमले ने फिर से हमें 90 के दशक में धकेल दिया।”
फालगाम आज भी वहीं है। वही बर्फीली वादियाँ, वही बहती नदियाँ, वही देवदार के पेड़। लेकिन वहां अब एक खामोशी तैर रही है—एक ऐसी खामोशी जो चीखों से भी ज्यादा डरावनी है। और उस खामोशी में आज भी गूंज रही है नूर की वो मासूम हँसी, जो अब कभी वापस नहीं आएगी।
एक उम्मीद की लौ | A Ray of Hope
हर आतंक की कहानी एक सन्नाटा लेकर आती है, लेकिन हर सन्नाटे में उम्मीद भी होती है। जो बच्चे बच गए, जो लोग घायल होकर भी जीवित हैं—वे गवाह हैं कि ज़िंदगी कभी हार नहीं मानती। सुरक्षाबलों का हौसला, लोकल लोगों की मदद और पूरे देश की एकजुटता इस बात का संकेत है कि भारत सिर्फ आहत नहीं होता—वो हर हमले के बाद और मजबूत होता है।
अब यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं रहा, यह सवाल बन गया है—देश के हर नागरिक से। और जब तक इसका जवाब नहीं मिलता, तब तक फालगाम की रूह को चैन नहीं मिलेगा।