अभिषेक बच्चन अपने करियर के खास दौर से गुजर रहे हैं; ‘कालिधर लापता’ इसी सफर में एक भावनात्मक मील का पत्थर है। यह फिल्म निर्देशक मधुमिता सुन्दरारामन की अपनी तमिल फिल्म ‘K.D.’ की हिन्दी रूपांतरण है, जिसमें एक बुड्ढे और एक बच्चे के बीच गहरी दोस्ती को बेहद सहज और संवेदनशील तरीके से दर्शाया गया है, फिर भी कथानक की गति और बजट आधारित सीमाओं ने इसे कुछ हिस्सों में हाशिये पर रख दिया।
अभिषेक ने कालिधर की भूमिका में वही पुराना जादू दिखाया है—एक व्यक्ति जो याददाश्त खोने की दुविधा से जूझता है, परिवार की उदासीनता से टूट जाता है और एक अजनबी बच्चे के साथ अनजान सफर पर निकल पड़ता है। वह टूटे हुए इंसान को प्रभावशाली और ख़ामोशी से उभारते हैं; उनकी भावनाएं कैमरे के सामने खुलती हैं, जब वे किसी बच्चे की मासूमियत के बीच मुस्कuraohnā याद करते हैं और फिर उसके बीच खुद को भी ढूंढ जाते हैं।
चित्र में खास यह रहा कि अभिषेक और बाल कलाकार दैविक बघेला की केमिस्ट्री दिल को छु गई। बालीचंद का सरल लेकिन मासूम संवाद—“खुद ही TV और खुद ही रिमोट बन जा”—देता है कि यह कहानी सिर्फ दो उम्रों का मेल नहीं, बल्कि एक दूसरे की कमी को समझने का सफर है। औरंगज़ेब अय्यूब ने ‘सबोध’ की भूमिका में संतुलन बनाए रखा, जहां उनकी जीवन-दृष्टि कालिधर की यात्रा को भावनात्मक आधार देती है।
लेकिन कुछ पहलुओं ने फिल्म की चमक को फीका किया। पटकथा कुछ जगह आकर्षित होती है, तो कहीं धीमी रफ्तार से चलती हुई लगती है। अंतिम दृश्य भावनात्मक तो है, मगर कहानी की एक अनावश्यक प्रेम कहानी और कुछ बीच-बीच की क्लिष्टी ड्रामेबाईं ने कथानक को लम्बा कर दिया। दर्शक रुक-रुककर चलने वाले इस सफर में समय-कभी-कभी उबाऊ महसूस होता है।
तकनीकी रूप से फिल्म ने कुछ चुनौतियाँ स्वीकार की हैं। कुंभ मेले की झलक स्टूडियो में लावारिस तरीके से दिखती है, और लो बजट सेटिंग दृश्य की असलियत को कुछ कम कर देती है। फिर भी, लोकेशन में ‘जीवंत गांवों’ का अहसास बना रहता है, जो कहानी को मानवीय बनाता है।
संक्षेप में, ‘कालिधर लापता’ एक साधारण, दिल से बनी फिल्म है, जो बड़े इमोशनल कटौती के बावजूद छोटे बजट और धीमी कहानी से कमजोर पड़ जाती है। अगर आप भावनात्मक यात्रा पसंद करते हैं, और फिल्म को रचनात्मक स्थिरता और सादगी के नजरिए से देखते हैं, तो इसमें समय लगाने लायक चीज है—लेकिन अगर आपकी अपेक्षाएँ उन्नत कथानक संरचना और तेज़ी वाली ड्रामेबाज़ी की हों, तो हो सकता है आपको निराशा हो जाए।
अभिषेक बच्चन की गहराई इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है। बाल कलाकार के साथ उनका सहज दृश्य, सच्ची दोस्ती और जरूरतभरी मुस्कान आपकी आत्मा को धीरे से छूते हैं। लेकिन फिल्म का हस्ताक्षर कहते हैं—हर कहानी अच्छी शब्दविन्यास और थोड़ी गति चाहती है।
नतीजा ये है कि ‘कालिधर लापता’ किसी अनजान रास्ते में कई मोड़ लिए चले जाने जैसा अनुभव देता है—आपको आत्मा छू जाती है, कभी समय लंबा लगता है। यह एक मानवीय फिल्म है, जो यहां वहां पीछे भी रहती है, मगर एक नया रूप देती है—खोने और पाने की एक मौन, प्यारी यात्रा।
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