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“देवशयनी एकादशी: विष्णु जी की योगनिद्रा और चार महीने की साधना का आरंभ” “Devshayani Ekadashi: Lord Vishnu’s Cosmic Slumber and the Beginning of Four-Month Spiritual Discipline”

देवशयनी एकादशी हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आती है। यह व्रत अत्यंत पावन, पुण्यदायक और विशेष महत्व वाला माना जाता है क्योंकि इसी दिन से भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस कालखंड को ‘चातुर्मास’ कहा जाता है और यह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक तक चलता है। इन महीनों में वैदिक परंपरा के अनुसार मांगलिक कार्यों जैसे विवाह, गृह प्रवेश, मुंडन, नामकरण आदि वर्जित माने जाते हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार, जब पृथ्वी पर पाप और कष्ट बढ़ने लगते हैं, तब भगवान विष्णु विश्राम लेते हैं ताकि ब्रह्मांड में संतुलन बना रहे और आत्माएं स्वयं साधना व तप से मुक्ति का मार्ग खोजें। इस दौरान सृष्टि का संचालन भगवान शिव, ब्रह्मा और शक्ति स्वरूपा देवी के हाथों में चला जाता है। इस काल में अधिकतर साधक उपवास, जप, तप और संयम के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं।

देवशयनी एकादशी का व्रत विशेष रूप से उन भक्तों द्वारा रखा जाता है जो आत्मिक शुद्धि, पापों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं। यह व्रत शरीर और मन की तपस्या का प्रतीक है, जिसमें व्रती सूर्योदय से पहले स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करता है और व्रत का संकल्प लेता है। दिनभर उपवास करके केवल फल, दूध, जल या निर्जल व्रत रखा जाता है। रात्रि जागरण और भजन-कीर्तन का भी विशेष महत्व है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि एकादशी की रात भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन का योग बनता है।

देवशयनी एकादशी की पौराणिक कथा भी अत्यंत प्रेरणादायक है। कथा के अनुसार एक समय राजा मंधाता के राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। प्रजा भूख और पीड़ा से त्रस्त हो गई। जब राजा ने इस संकट से निवारण के लिए ऋषियों से परामर्श किया, तब महर्षि अंगिरा ने उन्हें देवशयनी एकादशी का व्रत रखने की सलाह दी। राजा ने विधिवत व्रत किया और उसके प्रभाव से उनके राज्य में वर्षा हुई और प्रजा को सुख-शांति की प्राप्ति हुई। इस घटना के बाद से यह मान्यता प्रबल हुई कि इस व्रत को रखने से समस्त कष्ट दूर होते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि आती है।

इस व्रत में पूजा विधि भी विशेष होती है। प्रातःकाल गंगाजल मिले जल से स्नान कर भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र पर पीले पुष्प, चंदन, धूप-दीप और नैवेद्य अर्पित किया जाता है। तुलसी पत्र विष्णु जी को अति प्रिय है, इसलिए पूजा में तुलसी का उपयोग अनिवार्य होता है। पूजा के दौरान ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ और ‘ॐ विष्णवे नमः’ मंत्रों का जप कर आरती की जाती है। व्रती दिन भर भगवान के नाम का स्मरण करते हुए सत्संग, कथा श्रवण और धार्मिक ग्रंथों के पठन में संलग्न रहते हैं।

चातुर्मास की शुरुआत के साथ ही जीवनशैली में अनेक प्रकार के संयम और नियम अपनाने की परंपरा भी शुरू होती है। इन चार महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, सात्विक भोजन, अपरिग्रह और ध्यान योग की प्रधानता रहती है। यह काल केवल शरीर को स्वस्थ करने का नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक परिशोधन का भी अवसर होता है। इन महीनों में मांसाहार, मद्यपान, बुरी संगति और हिंसा जैसे कर्मों से दूर रहकर व्यक्ति आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर हो सकता है।

देवशयनी एकादशी का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसी दिन से भगवान श्रीहरि विष्णु पाताललोक में शेषनाग की शैय्या पर योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं। यह योगनिद्रा केवल शरीर की विश्रांति नहीं होती, बल्कि यह दिव्य योजना का एक हिस्सा होती है जिसमें ब्रह्मांडीय संतुलन को बनाए रखने के लिए चेतनाओं को स्वतंत्र रूप से आत्मशुद्धि का अवसर मिलता है। इस दौरान किसी भी शुभ कार्य को रोकने की परंपरा इसीलिए बनी है क्योंकि स्वयं भगवान साक्षी रूप में नहीं होते।

वर्तमान समय में जब मनुष्य भागदौड़ और भौतिकता में उलझा हुआ है, ऐसे में देवशयनी एकादशी जैसे पर्व हमें अध्यात्म की ओर लौटने की प्रेरणा देते हैं। यह पर्व हमें जीवन की अनित्यता, संयम और अंतर्मन के शुद्धिकरण की याद दिलाता है। यदि आज के दिन कोई व्यक्ति पूरे श्रद्धा भाव से व्रत रखे, भगवान का स्मरण करे और चार महीने तक संयमित जीवन जीने का संकल्प ले, तो निश्चित ही उसका जीवन सकारात्मक परिवर्तन की ओर अग्रसर हो सकता है।

देवशयनी एकादशी से जुड़े ज्योतिषीय दृष्टिकोण से देखें तो यह दिन कुछ राशियों के लिए विशेष शुभ माना गया है। जिन लोगों की कुंडली में बृहस्पति, चंद्र या सूर्य अनुकूल स्थिति में हो, उनके लिए यह व्रत अत्यंत लाभकारी होता है। आर्थिक संकट, स्वास्थ्य समस्याएं और वैवाहिक जीवन में अड़चनों से मुक्ति पाने के लिए भी इस व्रत को प्रभावी माना गया है।

आज के दिन व्रती को रात्रि में सोने की बजाय जागरण करना चाहिए। कथा श्रवण, भजन-कीर्तन और श्री हरि के नाम का जप करके यह रात जागरण में बिताई जाती है। अगले दिन द्वादशी तिथि के उदय होने पर पारण कर व्रत समाप्त किया जाता है। पारण से पहले तुलसी जल पीना और दान देना अत्यंत पुण्यकारी माना गया है।

व्रत के नियमों के अनुसार, श्रद्धा और नियमों का पालन न करना व्रत को निष्फल बना सकता है। इसलिए इस दिन केवल भूखा रहना ही नहीं, बल्कि मानसिक शुद्धता, विचारों की निर्मलता और आचरण की पवित्रता भी व्रत का अनिवार्य अंग है। इसी पवित्रता और श्रद्धा के साथ अगर व्रत रखा जाए तो न केवल सांसारिक सुख मिलते हैं, बल्कि आत्मिक संतुलन भी प्राप्त होता है।

निष्कर्ष:
देवशयनी एकादशी जीवन में आध्यात्मिक संतुलन का एक उत्कृष्ट माध्यम है। यह दिन हमें न केवल भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का अवसर देता है, बल्कि हमारे भीतर आत्मनिरीक्षण, संयम और साधना का बीज भी रोपित करता है। इस दिन का पालन केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक दिव्य आह्वान है आत्मा की शुद्धता और चित्त की स्थिरता के लिए। ऐसे व्रत न केवल परंपरा हैं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाले संकल्प हैं—जो हर युग, हर काल में प्रासंगिक रहते हैं।


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